मेरी बात को सबसे पहले अमेरिकन कवि और विवेचक
एजरा पाउंड ने साहित्य के बारे मैं जो कहा
गया उससे शुरू करना चाहूँगा : “Literature
does not exist in a vacuum. Writers as such have a definite social function
exactly proportional to their ability as writers.This is their main use.” लेखक,कवि और साहित्यकारों का एक नीश्चीत सामाजीक फ़र्ज़ और एक निश्चीत
कर्तव्य होता है.यह फ़र्ज़ कार्य,कर्तव्य,प्रतिबध्धता समाज और व्यवस्था के सामने जो
पडकार,समस्या,अन्याय,समाजकी व्यथा-वेदना है उसको उजागर करना है.यह उजागर करने का
काम कोई भी कारन बंध हुआ है या हो सकता है तो वह समाज,व्यवस्था का पतन निश्चीत है
मार्टिन ल्युथर किंग के शब्दों मैं कहू तो “जब से इंसान अन्याय के सामने ‘चुप’
रहने की नीति अपनाता है,मूक बनकर बैठ रहता है,तबसे उसका ‘पतन’ शुरू होता है’’
उन्होंने व्यक्ति के बारे में बात कही है पर साहित्यकारो और समाज के लिए भी उतनी
ही लागू पड़ती है.विशाल अर्थ मैं देखा जाए तो साहित्यकार जिस समाज मैं जी रहे है वह
समाज के पडकार उनके ही पड़कार है बल्कि जिवनलक्ष्यी साहित्य मतलब समग्र मानवजात के
सामने खड़े पड़कारो को उजागर करनेवाला साहित्य है..
पीढी दर पीढ़ी पड़कार बदलते रहते है ,इसको युगवर्ती
या युगप्रवर्तक साहित्यकृति कहा जायेगा जो खुदके युग के प्रश्नों,समस्याए,पडकारो
को उजागर करते है.समकालीन समाज के सामने कौनसे पड़कार है उसपे ध्यान दिया जाए तो हिंसा,युध्ध,बलप्रयोग,मानवसंहार,रिफ्यूजी,शरणार्थी,अन्याय,
अत्याचार,बेकारी,भुखमरी,आत्महत्या,शोषण,असहिष्णुता.समर्थ सर्जक उसको उजागर करते है और
ऐसी परिस्थिति का निर्माण करने वाले
परिबलो को पडकारते है उहापोह भी करते है हाल ही मैं देखा गया देशके
साहित्यकारों,कलाकारों के द्वारा एवोर्ड वापसी.
सामान्य,मध्यम साहित्यकार ऐसे पडकारो से जागृत होता
ही नहीं,अगर होता भी है तो सरकारी या अन्य संस्थाओ के इनाम,एवोर्ड के लालचमैं मुह
बंध रखता है,कलम उठाता ही नहीं,ऐसे साहित्यकारों मैं पडकारो को उजागर करने की
नैतिक हिम्मत भी नहीं होती.उदाहरण के तौर पर आज़ादी के बाद देश मैं अलग अलग जगह पर
हुवे अपराध और हाल मैं भी हो रहे गुनाह उनके बारेमैं जिन जिन ने कोशिश की उनका हाल
क्या हुवा सबको पता ही है..
“Writers are mirror
of Society’’ आइना बनकर समाज के प्रति जिम्मेदारी निभानी
होगी और लोगो के दुःख दर्द को लिखावट का स्वरूप देना पड़ेगा.उनकी हर वो पोजिटिव बात
को उजागर करने का काम साहित्यकारों को ही करना पड़ेगा..
आज देश के मौजूदा हालात की बात करे तो बदलते विभाजनकारी,कौम कौम के बीच नफ़रत ,अविश्वास
और ध्रुणा की बड़ी बड़ी दीवारे खडी करके भेदभाव फेलाती राजनीती के कारण हमारी समाज
व्यवस्था के लिये बहुत सारी समस्याए खडी होती दिख रही है,नए नए पडकार सामने आ रहे
है.लोग एक प्रकारका डर महसूस कर रहे है.चारो और असलामती की भावना पैदा हो रही
है.युवाओ मैं हताशा,निराशा जन्म ले रही है.पश्चिम के युवा आज या तो ड्रग्ज या
आल्कोहोल मैं इसका उपाय ढूंढ रहा है.जिसको
एंटी सोसिअल बिहेवियर कहलो जिसमे पड़कर तोड़फोड़,मारामारी,चोरी,लुटफाट करता है.टीनेज
सेक्स जिसके कारण टीनेज प्रेग्नंसी,अंडरएज कुवारी माताओ की बढ़ती संख्या,ब्रोकन
फेमिलिज,बिना माँ बाप के बच्चे,बलात्कार ऐसी न जाने कितनी असंख्य समस्याए मुह फाड़
के खड़ी है जो वहा बन रही है हमारी भी यही दशा,समस्याए है फेरहिस्त बहुत लम्बी हो
जाएगी इसलिए यही रूककर उसका उपाय क्या हो सकता है उसके बारेमे सोचने की सख्त जरुरत
है और मेरी निजी राय सोच को आपके साथ शेयर करना चाहूंगा ..
जहा सरकारे दोषित दिख रही हो वहा उनकी निति रीतीओ की टीका टिपण्णी
करने से घभराना नहीं चाहिए.स्वतंत्रता के आदर्श और अभिव्यक्ति पर जहा भी हुम्ला हो
वहा विरोध जरुर दर्ज कराना चाहिए.जहा जहा एसा करने मैं नहीं आता वह स्वतन्त्र और
मुक्त समाज धीरे धीरे पोलिस राज या नेताराज या गुंडाराज मैं तब्दील हो जाता है ये
बात हमे याद रखनी चाहिए.
लोगो को उनके बंधारण्णीय मुलभुत हक़ से वाकेफ करे और दिन बदिन
सरकारी,बीन सरकारी हितकारी योजनाओ से लोगो को माहितगार करे ऐसी जागरुतता की बाते
लिखता रहना चाहिए..
फ्रीडम ऑफ़ स्पीच मतलब बोलने की मर्यादा को समजते हुवे ध्यान रखते हुवे अपने विचारो या विरोध को असरकारक तौर पर पेश करे.हरेक को एकदूसरे धर्म ,जाती के प्रती बोलते या टिपण्णी करते हमे रुकने की सख्त आवश्यकता है.हमारा एक गलत शब्द,एक गलत बात या वाक्य गंभीर परिणाम ला सकते है.और लाते भी है यह हम सब अच्छी तरह जानते भी है.इसको ध्यान मैं रखते हुवे जबान और कलम दोनों पर भी काबू रखते शिखना चाहिए.चाहे कैसे भी संजोग आ जाये पर हमें हमारा शिस्त,और हमारे संस्कार भूलने नहीं चाहिए.सौम्यता ही हमारी पहचान है..
फ्रीडम ऑफ़ स्पीच मतलब बोलने की मर्यादा को समजते हुवे ध्यान रखते हुवे अपने विचारो या विरोध को असरकारक तौर पर पेश करे.हरेक को एकदूसरे धर्म ,जाती के प्रती बोलते या टिपण्णी करते हमे रुकने की सख्त आवश्यकता है.हमारा एक गलत शब्द,एक गलत बात या वाक्य गंभीर परिणाम ला सकते है.और लाते भी है यह हम सब अच्छी तरह जानते भी है.इसको ध्यान मैं रखते हुवे जबान और कलम दोनों पर भी काबू रखते शिखना चाहिए.चाहे कैसे भी संजोग आ जाये पर हमें हमारा शिस्त,और हमारे संस्कार भूलने नहीं चाहिए.सौम्यता ही हमारी पहचान है..
समाज मैं युवा ओ को उचीत मार्गदर्शन मिले और वो निर्दोशो का खून बहा
रहे इंसानियत के दुश्मन कहलाने वाले आतंकवादी सोच और उनसे जुड़ने से रुके ऐसे
चरित्र और समाज का घडतर करे और युवाओ मैं आशा और उत्साह जगे ऐसी लिखावट की बहुत
जरुरत है.
जीवन मैं साहित्य के स्थान को प्रेमचंद जी के जवाब और उनकी सोच से ख़तम करना चाहता हु आशा करता हु साहित्यकारों
से के देश की समाज और व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी अब आपके कंधो पर है ..
“जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे,अध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न
मिले,हम मैं शक्ति और गति न पैदा हो,हमारा सौंदर्यप्रेम न जागृत हो,जो हम में
संकल्प और कठिनाइयो पर विजय प्राप्त करने की सच्ची द्रढता न उत्पन्न करे,वह हमारे
लिए बेकार है वह साहित्य कहेलाने का अधिकारी नहीं है ...’’
"जब कोई लहर देश मैं उठती है ,तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है..और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बंधुओ के कष्टों से विकल हो उठती है ..और इस तीव्र विकलता मैं वह रो उठता है ,पर उसके रुदन मैं भी व्यापकता होती है"
सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता,वह सदा नया बना रहता है
~प्रेमचंद
जय हिन्द ...जय जवान ...जय किशान
जय हिन्द ...जय जवान ...जय किशान
True , what you have written
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