गुजरातकी बात करे तो तलाक ए बिद्दत की संख्या के तौर पर मैं देखा जाए तो बहुत ही कम तादाद है.और वो भी गिनेचुने समाज मैं ही है.मैं मेरे समाज की ही बात करू तो मैं सुन्नी और “जालोरी (जागीरदार)’ समाज से ताल्लुक रखता हु.मेरे दादाजी से भी पहलेकी पीढ़ी से लेकर वर्तमान हमारी आजकी पीढ़ी तक एक भी वाकया तलाकका ना हीं बना है और ना ही सुननेमें आया है मतलब तीन तलाक एक्जिस्ट ही नहीं करता.क्युकी हम मानते क्या समजते है की यह अपनेआपमें इस्लाम के खिलाफ है.कुछ ना समज और अपरिपक्व लोगोके कारण इसे नकार भी नहीं सकते,कुछ वाकये गुजरातमें भी सामने आये है जैसे की सुरतमें सुमैयाबहन का जिनको तलाक देकर निकाल दिया.वह अपने अब्बू के घर रहती थी फिर वहा पर भी उसके पति और सास द्वारा टॉर्चर किया जाता रहा.तो सुमैय्याबहन दूसरी जगह शिफ्ट हो गई,वहाँ पर जाकर भी उसका शौहर मारपीट करता रहा.यह मामलेमें उसके समर्थनमें मुस्लिम समुदाय की ही औरते आई और बुरखा मार्च निकाला गया.पीएम,सीएम को आवेदन दिया गया उनकी मांग इस तरह थी की “ट्रिपल तलाक ख़तम करो”,”औरत को भी ट्रिपल तलाक नकारने का हक़ दिया जाए”,और “निकाहनामेमें यह शर्त रखी जाए की इसका शोहर ट्रिपल तलाक नहीं देगा तो ही निकाह होगा“.दूसरा एक वाकिया रशीदाबेन रस्सिवाला का है जिनकी आठ साल की शादीशुदा जिंदगी के बाद सेपरेट होने का दोनों पतिपत्नीने निर्णय लिया.जिसमें सोहर-बीवीने कोर्ट से दोनों की सहमती से तलाक मांगे तो कोर्ट ने नकार दिया और कहा की सिविल प्रोसीजर कोड़ मैं एसा कोई प्रावधान नहीं है.तीसरे किस्सेमें सूरत की ही अमीरुन्निशा घर मैं खाना बना रही थी चूले का धुआं शौहर को डिस्टर्ब कर रहा था तो गुस्सेमें जलता चुला बीवी पर फेंककर एक ही बार मैं तीन तलाक बोलकर चला गया.
एसा क्यों होता या किया जाता है क्युकी इन्सानने औरत की एहमीयत को कभी समजा ही नहीं या समजने की कोशिश ही नहीं की ,इसके लिए सबसे पहले जरुरत है हमें औरत की एहमियत को समजनेकी और कुछ हदतक समाज व्यवस्थाको भी जवाबदेह मानता हूँ.मामूली बातो और गुस्से मैं तलाक दे बेठना मुनासिब रवैय्या नहीं है.समजनेकी जरुर यह है की तलाक का असर एक इन्सान तक नहीं रहता और न सिर्फ दो लोगो तक सिमित है बल्कि इससे खानदानकी इकाई तूट जाती है फिर नफरत और दुश्मनी का दौर नस्लों तक चलता रहता है और समाज तूट फुट का शिकार हो जाता है.महिलाओं को एक बार में तीन तलाक़ बोलकर उसके सारे सपनों को ख़त्म करने के खिलाफ २२ अगस्त के अदालत असंवैधानिक करार देने के फैसले का स्वागत है पर साथसाथ केबिनेट के मुस्लिम महिला(विवाह अधिकारों का संरक्षण) बिल 2017 के स्वागत के साथ उसके मनसूबे और अदालतकी बताई कितनी गाइडलाइन का ख्याल रखा गया है वो भी समजने की जरुरत है.कुछ गिनेचुने छोटे पक्षोंको छोड़कर सक्षम विरोधपक्षकी चुपकी भी अपनेआप में बहुतकुछ कह जाती है.इस बात से सम्पूर्ण सहमती है की अदालतके असंवैधानिक करार दिये जाने के फैसले की वजहसे मजहबी बुराइयों से लड़ने का साहस अदालतों के साथ साथ जुल्मकी शिकार औरतोको भी आएगा.जो तीन तलाक 1950 के दशक में कई मुस्लिम देशों ने समाप्त कर दिया था,आज हमारा देश भारत 2017 में उसे हासिल कर गैरकानूनी बनाये जाने पर जश्न मना रहा है.इस परंपराको ख़तम करने के रूप के कदम के प्रयास पर शायरा बानो, गुलशन परवीन, आफ़रीन, आतिया साबरी, इशरत जहां (जो अभी अभी हावरा से सायंतन बासु ,वेस्ट बंगाल यूनिट के जनरल सेक्रेटरी के मुताबिक भाजपा से जुड़ गई है) को बधाई.जिन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई और औरतोकी अकेलेपन वालीसी ज़िंदगीमें सुरक्षा रूपी आशाको जिन्दा किया.बात है तुरंत एक ही बार मैं तीन तलाक देकर अपनी जवाबदेहियोसे पुरुषो द्वारा मुह कर लेना.जो बिलकुल किसी भी तरह से जायज़ नहीं है.२२ मुस्लिम देशोमें कबसे ही ट्रिपल तलाक पर बेन है तो भारतमें इतना लेट क्यों ? ट्रिपल तलाक पर गौर फरमाए तो ये मुद्दा इंदौर की शाहबानो केश से शुरू हुवा था उनके शौहर का नाम मोहम्मद एहमद खां,उनके पांच बच्चे थे और शादी के चौदह साल बाद एहमद खां ने दूसरी शादी कर ली,फिर दोनों बीवियो के साथ रहने लगे लेकिन उसके बाद शाह्बनोको बच्चे समेत घरसे निकाल दिया,बादमें शाहबानो ने अदालत के दरवाजे खटखटाए,सुप्रीम तक गई,तलाक के बाद अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता दिलाए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी जिसे स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया था. उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमिअत उलेमा ए हिंद ने इसे शरीयत में हस्तक्षेप बताते हुए तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. उनका कहना था कि शरीयत के अनुसार गुजारा भत्ता तलाक के बाद इद्दत की अवधि में ही दिया जाता है. मुद्दत के बाद गुजारा भत्ता मांगना शरीयत के खिलाफ है.
फैसले के बावजूद राजीव गाँधी की सरकारने कानुनमें तबदीली की जिसे अभीतक गलत माना जा रहा है ,जिसका जिक्र पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने गलत बताते हुवे अपनी किताबमें किया हुवा है. सरकार पर दबाव बनाने के लिए देशव्यापी आंदोलन चलाया गया और जल्द ही संसद द्वारा कानून में संशोधन कर न्यायालय के फैसले को बदल दिया. इस संशोधन में यह बात शामिल है कि अगर कोई महिला चाहे तो 125 सीआरपीसी के तहत गुजारा भत्ते की मांग कर सकती है.पूर्वमें केंद्रीय मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने सरकार के इस कदम का विरोध किया था. आज कई कांग्रेस नेता स्वीकार करते हैं कि शाहबानो मामले में राजीव गांधी सरकार का निर्णय गलत था.
जिस प्रकार पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक पर अड़ियल रवैया अपनाया है उससे बोर्ड पर एक ही विचारधारा के लोगों के वर्चस्व का संकेत मिलता है. सवाल यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इतने लंबे समय में शरीयत अधिनियम 1937 और मुस्लिम विवाह अधिनियम 1939 की कमियों को क्यों दूर नहीं करा सका. बोर्ड को अदालत से टकराने के बजाय उन्हें सही जानकारी प्रदान करनी चाहिए थी ताकि न्यायपालिका निर्णय ले सकती थी.
अगर सरकार की बात मानी जाए तो सामाजिक परिवर्तनों की बात हो रही हो तो इस बात का भी जिक्र करना जरुरी है बात है ‘सती-प्रथा’ की । इस कुप्रथा के खात्मे के लिए राजा राम मोहन राय,जो कुलीन ब्राह्मण थे अगर ज्यादातर हिंदुओं का समर्थन नहीं मिला होता तो उनकी पहल कभी सफल नहीं हो पाती, अंग्रेज हुक्मरां सामाजिक अंतरविरोधों को समझते थे। वो रुचि भी रखते थे और सब पता भी था जिससे भारतीयों को जाति, संप्रदाय अथवा क्षेत्रों में बांटके रखा जा सके।1857 में चोट खाने के बाद महारानी विक्टोरिया के चाकरोंने यह कटु सबक ग्रहण किया था कि हिन्दुस्तानियों को एकजुट होने देना उनके लिए आत्मघात से बदतर है। इसके बावजूद उन्होंने सती-प्रथा पर कानून इसलिए बनाया, क्योंकि वे समझ गए थे कि आज नहीं तो कल, इस देश के बहुसंख्यक इसका बहिष्कार कर देंगे।
सवाल यह है की क्या कानून बना लेने से हरेक समस्याओं का समाधान हो जाता है क्या ?
नहीं न, दहेज-प्रथा जीता-जागता उदाहरण है।कानून तो बहुत पहले बन गया था इसके लिए, मगर यह कुरीति आज तक ख़तम कर सके हम ? इस समस्या पर सार्थक लड़ाई संविधान के रखवाले नहीं,बल्कि आम महिलाएं लड़ रही हैं।पर पिछले दशक से परिवर्तन और जागरुकता मैं बहुत सारी तब्दीलियाँ देखि जा सकती है अक्सर खबरोमे हमने पाया है की दहेज मांगने पर बहुत सी बेटियों ने अपने परिवार के प्रतिरोध के बावजूद घर आई बारात लौटा दी। ऐसे न्यूज़ भी देखे की तमाम कन्याओं ने उन घरों में शादी करने से इनकार कर दिया, जहां टॉयलेट नहीं थे। परिवर्तन के इस दौर का भी स्वागत होना चाहिए .
फैसला हालाकि सुप्रीम कोर्ट ने दिया है पर मौजुदा सरकार द्वारा बिल पारित होने जा रहा है तब श्रेय लेनेकी जो कोशिश और होड़ की लगी है उसमें शक ज्यादा है .स्वागत करना गलत नहीं होना चाहिए. इसरो द्वारा छोड़े गए 104 सेटेलाईटमें हमारे वैज्ञानिको की कितने सालोकी मेहनत लगी थी और श्रेय लेनेकी कोशिश आपको पता ही होगी.फिर भी अगर श्रेय लेना चाहते है तो पिछले सेन्सस के मुताबिक २० लाख एसी हिन्दू महिलाये है जिनको उनके पतियों ने छोड़ दिया है २ लाख ८० हजार मुस्लिम महिलाए है 90 हजार क्रिस्चियन महिलाए है और ८० हजार दुसरे मजहबो की महिलाए है जिनको अभीतक तलाक नही दिया गया है छोड़ दिया है बस.विधवा माँ बहेनोकी बात तो बाकी है जो अभी न जाने कितने आश्रमों में सेह लिए हुई है.उनको भी छोड़ दिया जाता है उनके आश्रम देखोगे तो पता चलेगा.भीख मांगने पर मजबूर है.और उससे भी बढ़कर न जाने कितने स्वयं घोषित बाबा है जिनकी तादाद भी कम नहीं जहा उनके आश्रमोमे न जाने कितनी बहेन बेटियाँ शोषित हैं ओ फ़िलहाल इनदिनों कई न्यूज मैं देखा और पढ़ा भी है.विवाहित औरतो के बारेमे जरा सोचिये इन महिलाओ के सामने कितनी बड़ी चेलेंज होती है दोनों बाजु ससुराल और मायके मैं अपनेआपको अडजस्ट कर पाना .उनके बारेमे भी सोचियेगा और श्रेय भी लीजियेगा दुआए मिलेगी.जिनको खुद को परिवार के बारेमे समज नहीं,अपने खुद के परिवार नहीं एसे लोग महिलाओ के नुमाइंदे बनने की कोशिशे करके लोगो को जताना चाहते है हम कितने बड़े चिंतित है ! अदालत का फैसला पुरे माशरे के लिए अपील है की अपने आप खुद अपने अन्दर रिफोर्म्स अगर ला सकते है तो जल्द से लाया जाए, जैसे सिग्नेचर केम्पेन किया गया उसी तरह यही फेसले के स्वागत के लिए भी एसी कुछ मिशाल पेश की जानी चाहिए,अगर यह हो सके तो मेरे हिसाबसे इससे बेहतर इस्लामकी सेवा नहीं हो सकती.
इस्लाम की सही समज जहा जहा नहीं हो या सिखाने की कुछ कमजोरिया के साथ पढ़ाया जाता है उसके खिलाफ एक मुहीम,वार्तालाप या बहश की भी मुझे सख्त जरुरत दिखाई दे रही है...खासतौर पर हर धर्मके ठेकेदारों द्वारा हर धर्मके बारेमे गलत छबि पेश करके अपनी खोखली विद्वत्ता का प्रदर्शन कर रहे है एसे राजनेताओके साथ व्यवसायी मुल्ले मौलवी साधू संत फ़क़ीरो से दुरी बनाये रखे और सचेत रहनेकी आवाम को सख्त जरुरत है.
Note : Written on January 2018
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